Friday, July 15, 2011

गंगा सी मेरी माँ




सिर पर हो उबलता सूरज

पाँव के नीचे जलती सड़क हो

पैदल दूर तलक जाना हो

प्यास से सूख रहा हलक हो

मन करता है शिशु सा बनकर माँ की गोद समाऊँ

उसके प्यार की ठंडक से

गर्मी से लड़ जाऊँ

                                                          माँ का स्मरण आते ही मुझे याद आने लगती है पतित पावनी गंगा जो हिमालय का स्वच्छ धवल आवरण छोड़कर मटमैले मैदानी इलाकों में बेसुध दौड़ती है ताकि उसके बच्चों को निर्मलता मिले, अन्न-वस्त्र जुटाने का सामर्थ्य प्राप्त हो, अपने बच्चों की गंदगी साफ करते स्वयं के गंदे होने का भय भी उसे नहीं होता। मुक्ति देने वाली माँ मुक्ति भी नहीं चाहती। उसकी करुणा, त्याग, तपस्या से प्रसन्न हो परमात्मा उसे सागर की गोद सुलाते हैं वहाँ भी उसे चैन नहीं मिलता, वह सूरज की उपासना करती है और मेघों के माध्यम से फिर नई ऊर्जा से धरती पर आ जाती है। ईश्वर को अवतार लेने में समय लगता है पर माँ का अवतरण किसी पूजा, प्रार्थना, अर्चना, वंदन की प्रतीक्षा नहीं करता। कहते हैं मृत्यु के समय राम कहने से मुक्ति मिलती है पर मेरा मानना है मृत्यु के समय माँ का स्मरण मुक्ति भले ही न दे, पर ऐसा जीवन अवश्य देगा जो देवताओं के लिए दुर्लभ है! मुझे ईश्वर के वरदान से ज्यादा माँ का आशीष प्रिय है। 

  मेरी माँ स्कूल नहीं गई थी पर वह निरक्षर नहीं थी, क्योंकि अक्षर(ईश्वर) से उनका गहरा प्रेम था, वस्तुतः निरक्षर तो हम है, शब्दों की बाजीगरी करने वाले मदारी से ज्यादा नहीं हैं हम। वेदों, पुराणों, शास्त्रों एवं धर्मग्रंथों के अध्ययन से ईश्वर को पाना उतना सहज नहीं है, जितना सहज निःस्वार्थ सेवा, प्रेम व त्याग से है “ रामहिं केवल प्रेम पिआरा” भौतिक रूप से संपन्न बनाने वाली शिक्षा(वर्तमान) आँखों की भाषा नहीं समझती, मेरी माँ आँखों की भाषा समझती थीं। वे जानती थी कि ईश्वर की दी हुई संपन्नता अपने स्वार्थपूर्ति या अहंकार की पुष्टि के लिए नहीं है, अपने दरवाजे पर आए परिचित-अपरिचित साधु, असाधु सभी के प्रति वे ईश्वर का भाव रखती। चरम अभाव की स्थिति में भी वे आगंतुक को पानी जरूर पिला देती थीं, वे वृक्षारोपण का सरकारी कार्यक्रम नहीं जानती थीं, स्वयं प्रेरित होकर तालाब के किनारे वृक्ष लगवाती, स्वयं तालाब में स्नान के बाद उन वृक्षों को सींचती। प्रयाग, वाराणसी, वृंदावन से आने वाले साधुओं को वे ऐसे पूजती, मानो वे उसके आत्मीय हों। हम कहते, अम्मा साधु तुम्हें ठग ले गए, तो वे हँस कर कहतीं, कृष्ण से बड़ा ठगिया कोई नहीं है! वे साधु तो केवल द्रव्य, अन्न या वस्त्र ले जाते हैं, परंतु मेरे कृष्ण तो मेरा सर्वस्व ले गए हैं इसलिए मुझसे दूर-दूर रहते हैं, मुझे विश्वास है देहत्याग के बाद वह ठगिया उन्हें जरूर मिल गया होगा। इसी से वे हमें भुलाए बैठी हैं। मां कि याद करता हूँ, आँखों में क्या होता है जिससे मिलना होगा ही नहीं, उसके लिए क्यूँ रोता है।

(मेरे मामा अशोक तिवारी का मेरी काकी के लिए लिखा लेख)

2 comments:

  1. मां हैं, मामा हैं, काकी हैं, आप कहां हैं.

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  2. तिवारी जी का आलेख पढकर मन प्रसन्न हुआ। आपका भी धन्यवाद!

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद