Friday, January 18, 2013

हवा का सुख (प्रथम भाग)




(ल्हासा का पैलेस, स्वर्ग जो केवल तिब्बतियों के लिए नहीं है)
अब तक मैंने हवा का सुख ट्रेन में ही जाना था, सतपुड़ा की पहाड़ियों से रात को गुजरती हुई ट्रेन, जब चाँदनी रात में सारे तारें बिछ जाते थे और जुगनू इस महफिल को सजाने चारों ओर बिखर जाते थे तब मैं खिड़की के पास झुक कर आसमान ताकने लगता था, शीतल हवाओं के थपेड़े जब गालों पर पड़ते थे तब अजीब अलौकिक अनुभूति होती थी, ऐसे में एक द्वंद्व भी शुरू होता था उस समय को एन्जॉय करने के लिए, एक खूबसूरत गाना गुनगुनाते हुए इस माहौल को एन्जॉय करूँ या अपने प्रियजनों को याद करूँ?
                                                  इस बार मैंने हवा का सुख पहाड़ों में जाना, छत्तीसगढ़ का शिमला कहे जाने वाले मैनपाट में मुझे हवा का सुख मिला। एक ऊँचे पाट पर केवल आप होते हैं और चारों ओर से आने वाली हवाएं, ऐसा लगता है जैसे कह रही हों पधारो म्हारे देश रे............
                                               मैं घंटों इस हवा का सुख लेना चाहता था, हमने कुछ फोटोग्राफ्स खिंचवाए, लेकिन मुझे आश्चर्य होता रहा कि इन फोटोग्राफ्स में सबसे सुंदर और सबसे जबरदस्त कैरेक्टर तो बाहर है यहाँ की हवा। यहाँ आकर लगा कि देखा हुआ भी सच नहीं है लेकिन महसूस किया हुआ ही सच हो सकता है। पाट के बिल्कुल नीचे पतली धारा के साथ नदी बह रही थी, बस्ती का नामोंनिशां नहीं था, कुछ झोपड़ियां बनी थीं जो इस लैंडस्केप का स्वाभाविक हिस्सा जान पड़ रही थीं। पाट के सबसे ऊपर हवाएँ सबसे तेज। वहाँ पर टाइगर प्वाइंट देखा, पहले यहाँ शेर पानी पीने आता था लेकिन अब वो यहाँ नहीं आता।
                                         उसका झरना अब भी वहाँ पर है। मुझे हवा के साथ ही पानी का सुख भी बहुत अच्छा लगता है। मेरी बस जब सरगुजा की पहाड़ियों से गुजर रही थी तो पहाड़ी नालों को देखकर मुझे बार-बार लगा कि मैं रूक जाऊँ, घंटों इस पानी में लेटा रहूँ लेकिन मैं सभ्य संसार के सामने अपने इस पागलपन को प्रगट नहीं करना चाहता था सो मैं निरीह होकर केवल खिड़की से नालों को ताकता रह गया। सेमरसोत अभयारण्य में एक जगह रेत के दरिया में पानी बह रहा था, शुद्ध पारदर्शी पानी, अगर मैं अंबानी होता तो एंटीलिया नहीं बनाता, ऐसे ही किसी जगह अपना आशियाना बना लेता...।
                              मुझे मैनपाट की आध्यात्मिकता ने भी काफी प्रभावित किया, मैं शायद कभी लद्दाख न देख पाऊं, ल्हासा तो संभव ही नहीं तो मेरे लिए मैनपाट ही मेरा लद्दाख और ल्हासा है। यहाँ बुद्ध कई रूपों में दिखते हैं एक तिब्बती बौद्ध भिक्षु ने हमें तिब्बत में प्रचलित बौद्ध संस्कृति की जानकारी दी।
                                                      मुझे पहली बार मैनपाट में एहसास हुआ कि अपनी जड़ों से बिछड़ना कैसा दुखद अनुभव होता है। अपनी धरती छोड़कर एक अनजान दुनिया में आशियाना बनाना इनके लिए कितना मुश्किल रहा होगा, एक साम्राज्यवादी शक्ति के शोषण को झेलने मजबूर लोग? उन्हें देखकर नेहरू के प्रति श्रद्धा के भाव पैदा होते हैं कि उन्होंने एक अहिंसक संस्कृति के प्रति चीन का शत्रुभाव लेकर भी भारत का अतिथि धर्म निभाया, जब मैंने छोटे-छोटे तिब्बती बच्चों को मुस्कुराते हुए तो देखा तो लगा कि बड़ी ट्रैजेडी देने के बावजूद सब कुछ ईश्वर हमसे नहीं छीन लेता, इन बच्चों की मुस्कान के रूप में हमें देता है उम्मीद की किरण, एक नई धरती, एक नई जिंदगी की अंकुर फूटने के लिए।

2 comments:

  1. मैनपाट की ठंडी हवा ,चांदनी रात ,जुगनुओं की चमक ,बहती नदी की कलकल का शोर तिब्बती बच्चो की मासूम खिलखिलाती हंसी ...सब को महसूस कर रहा हूँ ....
    सुकून मिल रहा है ,सफ़र ज़ारी रखिये ....
    शुभकामनायें!

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  2. सुन्दर संस्मरण .....

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आपने इतने धैर्यपूर्वक इसे पढ़ा, इसके लिए आपका हृदय से आभार। जो कुछ लिखा, उसमें आपका मार्गदर्शन सदैव से अपेक्षित रहेगा और अपने लेखन के प्रति मेरे संशय को कुछ कम कर पाएगा। हृदय से धन्यवाद